Wednesday 2 April 2014

DO BAILON KI KATHA cbse class ix hindi A दो बैलों की कथा


 प्रेमचन्द का जन्म धार्मिक नगरी काशी  से लगभग चार मील दूर लमही गाँव  में ३१ जुलाई सन् १८८० को हुआ था । पिता का नाम अजायब राय था । वे डाकखाने में एक मुंशी का काम करते थे  । दुर्भाग्य वश उनके पिता का देहावसान हो गया । खाने को लाले पड़ गये । प्रेमचन्द ने जैसे तैसे मैट्रिक तक की शिक्षा पूरी की । प्रेमचन्द ने जब लिखना आरंभ  किया तब उनकी उम्र मात्र  तेरह वर्ष की थी ।वे एक स्कूल मे अध्यापक हुए फ़िर बाद में  स्कूल इंस्पेटर । 
८ अक्टूबर १९३६ में आपका देहान्त हो गया।
प्रमुख रचनाएँ -
 कथा-संग्रह :- मानसरोवर ( भाग १ से ८ तक )
 कहानी  :- ईदगाह , क़फन , देवी ,पूस की रात , प्रायश्चित ,बड़े घर की     
                 बेटी आदि ।
उपन्यास :- गोदान , ग़बन ,निर्मला , सेवा - सदन ,कर्मभूमि , मंगल - 
                 सूत्र आदि 
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दो बैलों की कथा


जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिहीन समझा जाता है । हम जब किसी आदमी को परले दरजे का बेवकूफ़ कहना चाहते हैं तो उसे गधा कहते हैं । गधा सचमुच बेवकूफ़ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता । गायें सींग मारती हैं, ब्याई हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है । कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना । जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी । वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा । उसके चहरे पर एक विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है । सुख-दुःख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में बदलते नहीं देखा । ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँचे हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है । सद् गुणों का इतना अनादर कहीं नहीं देखा । कदाचित् सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है । देखिये न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्या दुर्दशा हो रही है। क्यों अमरीका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता ? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोड़कर काम करते हैं, किसी से लड़ाई-झगड़ा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं फिर भी बदनाम हैं । कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं । अगर वे ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते तो शायद सभ्य कहलाते लगते । जापान की मिशाल सामने है । एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया ।


लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम गधा है और वह है बैल । जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते - जुलते अर्थ में 'बछिया के ताउ' का भी प्रयोग करते हैं । कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है । बैल कभी- कभी मारता भी है और कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है । और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है ।


झूरी काछी के दोनो बैलों के बैलों के नाम थे हीरा और मोती । दोनों पछाई जाति के थे ---- देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे । बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया । दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे । एक-दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाते थे, हम नहीं कह सकते । अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करनेवाला मनुष्य वंचित है । दोनों एक - दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी सींग भी मिला लिया करते थे- - विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है । इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता । जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिये जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्यादा से ज्यादा बोझ मेरी ही गरदन पर रहे । दिनभर के बाद या संध्या को दोनों खुलते तो एक - दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लिया करते । नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ ही उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे । एक मुँह हटा लेता, तो दूसरा भी हटा लेता ।


संयोग की बात, झूरी ने एक बार गोईं को सुसराल भेज दिया । बैलों को क्या मालूम क्यों भेजे जा रहे हैं । समझे, मालिक ने हमे बेच दिया । अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने , पर झूरी के साले गया को घर तक ले जाने में दाँतों तले पसीना आ गया । पीछे से हाँकता तो दोनों दायें-बायें भागते, पगहिया पकड़कर आगे से खींचता, तो दोनो पीछे को जोर लगाते । मारते तो दोनों सींग नीचे करके हुँकारते । अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते -- तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो ? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी । अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था और काम ले लेते । हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना क़बूल था । हमने कभी दाने-चारे की शिकायत
नहीं की । तुमने जो कुछ खिलाया, वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर भी तुमने हमें उस जालिम के हाथ क्यों बेच दिया ?

संध्या समय दोनों बैल अपने नये स्थान पर पहुँचे । दिन-भर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाये गये, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला । दिल-भारी हो रहा था । जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था । यह नया घर, नया गाँव, नये आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे ।


दोनों ने अपनी मूक-भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गये । जब गाँव में सोता पड़ गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुड़ा डाले और घर की तरफ़ चले । पगहे मजबूत थे । अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड़ सकेगा , पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गयी थी । एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गयी ।


झूरी प्रातःकाल सोकर उठा, तो देखा दोनों बैल चरनी पर खड़े हैं । दोनों की गरदनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा हैं । घुटने तक पाँव कीचड़ से भरे हैं और दोनों की आँखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा हैं ।


झूरी बैलों के देखकर स्नेह से गदगद् हो गया । दौड़कर उन्हे गले लगा लिया । प्रेमालिंगन और चुम्बन का यह दृश्य बड़ा मनोहर था ।


घर और गाँव के लड़के जमा हो गये और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे । गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी । बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनन्दन पत्र देना चाहिए । कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड़ , कोई चोकर , कोई भूसी ।


एक बालक ने कहा -- ऐसे बैल किसी के पास न होंगे । दूसरे ने समर्थन किया -- इतनी दूर से दोनों अकेले चले आये । तीसरा बोला -- बैल नही हैं वे, उस जनम के आदमी हैं । इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस नहीं हुआ ।


झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा तो जल उठी । बोली -- कैसे नमकहराम बैल हैं कि एक दिन वहाँ काम न किया , भाग खड़े हुए ।

झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका -- नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते ?


स्त्री रोब के साथ कहा -- बस, तुम्हीं ही तो बैलों को खिलाना जानते हो और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते है ।


झूरी ने चिढ़ाया -- चारा मिलता तो क्यों भागते ?


स्त्री चिढ़ी -- भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुद्धुओं की तरह बैलों के सहलाते नहीं । खिलाते है तो रगड़कर जोतते भी हैं । ये ठहरे काम-चोर, भाग निकले, अब देखूँ ? कहाँ से खली और चोकर मिलता है । सूखे-भूसे के सिवा कुछ न दूँगी , खाये चाहे मरे ।


वही हुआ । मजूर को  ताक़ीद कर दी गयी कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाय ।


बैलों ने नाँद मे मुँह डाला, तो फीका-फीका । न कोई चिकनाहट, न कोई रस । क्या खाएँ ? आशा - भरी आँखों से द्वार की ओर ताक़ने लगे ।


झूरी ने मजूर से कहा -- थोड़ी सी खली क्यों नहीं डाल देता बे ? 'मालकिन मुझे मार डालेगी ।' 'चुराकर डाल आ ।' 'ना दादा, पीछे से तुम ही उन्हीं की-सी कहोगे ।'

2


दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला । अबकी बार उसने दोनों को गाड़ी मे जोता ।


दो-चार बार मोती ने गाड़ी को सड़क की खाई में गिराना चाहा ; पर हीरा ने सँभाल लिया । वह ज्यादा सहनशील था ।


संध्या-समय घर पुहँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया . फिर वही सूखा भूसा डाल दिया । अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी ।


दोनों बैलो का ऐसा अपमान कभी न हुआ था । झूरी इन्हें फूल की छड़ी से भी न छूता था । उसकी टिटकार पर दोनों उड़ने लगते थे । यहाँ मार पड़ी । आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा ।


दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता , पर इन दोनों ने जैसे पाँव उठाने की कसम खा ली थी । वह मारते मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया । एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डंडे जमाये, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया । हल लेकर भागा, हल रस्सी, जूआ सब टूट-टाट कर बराबर हो गया । गले में बड़ी-बड़ी रस्सियाँ न होती, तो दोनो पकड़ाई में न आते ।


हीरा ने मूक-भाषा में कहा - भागना व्यर्थ है । मोती ने उत्तर दिया -- तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी ।


'अबकी बार बड़ी मार पड़ेगी ।'


'पड़ने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहाँ तक बचेंगे?'


'गया दो आदमियों के साथ दौड़ा आ रहा है । दोनों के हाथ में लाठियाँ हैं ।'


मोती बोला -- कहो तो दिखा दूँ  कुछ मजा मैं भी । लाठी लेकर आ रहा है ।


हीरा ने समझाया -- नहीं भाई ! खड़े हो जाओ ।


'मुझे मारेगा तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा ।'


'नहीं , हमारी जाति का यह धर्म नहीं है । '


मोती दिल में ऐंठकर रह गया । गया आ पहुँचा और दोनों को पकड़कर ले गया । कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पड़ता । उसके तेवर देख कर गया और उसके सहायक समझ गये कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है ।


आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया । दोनों चुपचाप खड़े रहे। घर के लोग भोजन करने लगे । उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियाँ लिए निकली और दोनों के मुँह में देकर चली गयी । उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शान्त होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया । यहाँ भी किसी सज्जन का वास है । लड़की भैरो की थी । उसकी माँ मर चुकी थी । सौतेली माँ उसे मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गयी थी ।


दोनों दिन-भर जोते जाते, डंडे खाते, अड़ते । शाम को थान में बाँध दिये जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती । प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते, मगर दोनों की आँखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ  था ।एक दिन मोती ने मूक-भाषा में कहा -- अब तो नहीं सहा जाता, हीरा ।


'क्या करना चाहते हो ?'


'एकाध को सींगो पर उठाकर फेंक दूँगा ।'


'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लड़की, जो हमे रोटियाँ देती है , उसी की लड़की है , जो घर का मालिक है । यह बेचारी अनाथ हो जाएगी?'


'मालकिन को न फेंक दूँ । वही तो उस लड़की मारती है ?'


'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो ।'


'तुम तो किसी तरह निकलने नहीं देते हो । बताओ, तुड़ा कर भाग चलें ।'


'हाँ, यह मैं स्वीकार करता हूँ, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे ?'


'इसका एक उपाय है । पहले रस्सी को थोड़ा - सा चबा दो । फिर एक झटके में जाती है । '


रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गयी, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर रस्सी मुँह में न आती थी । बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे ।


सहसा घर का द्वार खुला और वही लड़की निकली । दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे । दोनों की पूँछें खड़ी हो गयीं । उसने उनके माथे सहलाए और बोली -- खोले देती हूँ । चुपके से भाग जाओ , नहीं तो यहाँ के लोग मार डालेंगे । आज ही घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाए ।


उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खड़े रहे । मोती ने अपनी भाषा में पूछा -- अब चलते क्यों नहीं ? हीरा ने कहा -- चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफ़त आएगी । सब इसी पर संदेह करेंगे । सहसा बालिका चिल्लायी -- दोनों फूफावाले बैल भागे जा रहे हैं । ओ दादा ! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौड़ो ।


गया हड़बड़ाकर बाहर निकला और बैलों को पकड़ने चला । वे दोनों भागे । गया ने पीछा किया । और भी तेज हुए । गया ने शोर मचाया । फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा । दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया । सीधे दौड़ते चले गये । यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा । जिस परिचित मार्ग से आये थे, उसका यहाँ पता न था । नये-नये गाँव मिलने लगे । तब दोनों एक खेत के किनारे खड़े होकर सोचने लगे , अब क्या करना चाहिए ।


हीरा ने कहा -- मालूम होता हैं, राह भूल गये ।


'तुम भी तो बेताहाशा भागे । वहीं मार गिराना था।'


'उसे मार गिराते तो, दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड़ दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोड़े ?'


दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे । खेत में मटर खड़ी थी । चरने लगे । रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता जाता तो नहीं है ।


जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे । पहले दोनों ने डकार ली । फिर सींग मिलाये और एक दूसरे को ठेलने लगे । मोती ने हीरा को कई कदम पीछे हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया । तब उसे भी क्रोध आया । संभलकर उठा और फिर मोती से मिल गया । मोती ने देखा - खेल में झगड़ा हुआ चाहता है किनारे हट गया ।
3

अरे ! यह क्या ? कोई साँड़ डौंकता चला आ रहा है । हाँ, साँड ही है । वह सामने आ पहुँचा । दोनो मित्र बगलें झाँक रहे हैं । साँड पूरा हाथी है । उससे भिड़ना जान से हाथ धोना हैड , लेकिन न भिड़ने पर भी जान बचती नहीं नजर आती । इन्हीं की तरफ आ भी रहा हैड । कितनी भयंकर सूरत है ।

मोती ने मूक भाषा में कहा - बुरे फँसे । जान बचेगी ? कोई उपाय सोचो।


हीरा मे चिन्तित स्वर में कहा - अपने घमंड में भूला हुआ   है । आरजू-विनती न सुनेगा

'भाग क्यों न चले?'

'भागना कायरता है ।'


'तो फिर यहीं मरो । बन्दा तो नौ-दो-ग्यारह होता है ।'


'और जो दौड़ाए ?'


'तो फिर कोई उपाय सोचो जल्द ।'


'उपाय यही है कि उस पर दोनों जने एक साथ चोट करें ? मै आगे से रगेदता हूँ तुम पीछे से रगेदो , दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा । मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड़ देना । जान जोखिम है , पर दूसरा उपाय नहीं है ।'


दोनों मित्र जान हथेली पर लेकर लपके । साँड को भी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तज़रबा न था । वह तो एक शत्रु से मल्लयुद्ध करने का आदी था । ज्योंही हीरा पर झपटा , मोती ने पीछे से दौड़ाया । साँड उसकी तरफ़ मुड़ा, तो हीरा ने रगेदा । साँड चाहता था कि एक - एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे । उसे अवसर न देते थे । एक बार साँड झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने ले लिए चला कि मोती ने बगल से आकर पेट मे सींग भोंक दी । साँड क्रोध मे आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग चुभा दिया । आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया । यहाँ तक कि साँड बेदम होकर गिर पड़ा । तब दोनों ने उसे छोड़ दिया ।


दोनो मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे ।


मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा मे कहा -- मेरा जी तो चाहता था कि बच्चा को मार ही डालूँ ।


हीरा ने तिरस्कार किया - गिरे हु
बैरी पर सींग हुआ न चलाना चाहिये । 'यह सब ढोंग है । बैरी को ऐसा मारना चाहिये कि फिर न उठे ।'

'अब घर कैसे पहुँचेंगे , वह सोचो ।'

'पहले कुछ खा लें, तो सोचें ।'

सामने मटर का खेत था ही । मोती उसमे घुस गया । हीरा मना करता रहा, पर उसने एक न सुनी । अभी चार ही ग्रास खाये थे दो आदमी लाठियाँ लिये दौड़ पड़े , और दोनों मित्रों को घेर लिया । हीरा तो मेड़ पर था , निकल गया । मोती सींचे हुए खेत में था । उसके खुर कीचड़ मे धँसने लगे । न भाग सका । पकड़ लिया । हीरा ने देखा , संगी संकट में है , तो लौट पड़ा । फँसेंगे तो दोनों फँसेंगे । रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया ।


प्रातःकाल दोनों काँजीहौस में बन्द कर दिये गये ।

4

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पड़ा कि सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला । समझ ही में न आता था , यह कैसा स्वामी है । इससे तो गया फिर भी अच्छा था । यहाँ कई भैसें थीं, बकरियाँ , कई घोड़े, कई गधे .. पर किसी के सामने चारा न था , सब जमीन पर मुरदों की तरह पड़े थे । कई तो इतने कमज़ोर हो गये थे कि खड़े भी न हो सकते थे । सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाये ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर न आता न दिखायी दिया । तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरु की, पर इससे क्या तृप्ति होती ?

रात को भी जब कुछ भोजन न मिला तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी । मोती से बोला -- अब तो नही रहा जाता मोती !


मोती ने सिर लटकाये हुए जवाब दिया - मुझे तो मालूम होता है प्राण निकल रहे हैं ।


'इतनी जल्दी हिम्मत न हारो भाई ! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिये ।'


'आओ दीवार तोड डालें।'


'मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा ।'


'बस इसी बूते अकड़ते थे !'


'सारी अकड़ निकल गयी।'


बाड़े की दीवार कच्ची थी । हीरा मजबूत तो था ही , अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिये और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्प्ड़ निकल आया । फिर तो उसका साहस बढ़ा । उसने दौड़ दौड़कर दीवार पर कई चोटें की और हर चोट में थोड़ी - थोड़ी मिट्टी गिराने लगा।


उसी समय काँजीहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने आ निकला । हीरा का उजड्डपन देखकर उसने उसे कई डंडे रसीद किये और मोटी सी रस्सी से बाँध दिया ।


मोती ने पड़े पड़े कहा -- आखिर मार खायी, क्या मिला ?


'अपने बूते भर जोर तो मार दिया।'


'ऐसा जोर मारना किस काम का कि आप बंधन मे पड़ गये ।'


'जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने बंधन पड़ जाएँ ।'


'जान से हाथ धोना पड़ेगा ।'


'कुछ परवाह नहीं । यों भी तो मरना ही है । सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जानें बच जाती । इतने भाई यहाँ बन्द हैं । किसी के देह में जान नहीं हैं । दो चार दिन और यही हाल रहा तो सब मर जायेगे ।'


'हाँ, यह बात तो है । अच्छा, तो लो, फिर मैं भी ज़ोर लगाता हूँ ।'


मोती ने भी दीवार मे उसी जगह सींग मारा । थोडी सी मिट्टी गिरी और हिम्मत बढ़ी । फिर तो दीवार में सींग लगा कर इस तरह जोर करने लगा , मानो किसी प्रतिद्वन्द्वी से लड़ रहा है । आखिर कोई दो घंटे की जोर आजमाई के बाद , दीवार  ऊपर से एक हाथ गिर गयी । उसने दूनी शक्ति से दूसरा घक्का मारा, तो आधी दीवार गिर गयी ।


दीवार का गिरना था कि अधमरे से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे । तीनों घोड़ियाँ सरपट भाग निकलीं । फिर बकरियाँ निकलीं । उसके बाद भैंसें भी खिसक गयीं ; पर गधे अभी तक ज्यों के त्यों खड़े थे ।


हीरा ने पूछा -- तुम दोनों भाग क्यों नहीं जाते ?


एक गधे ने कहा -- जो कही फिर पकड़ लिये जाएँ ।


'तो क्या हरज है । अभी तो भागने का अवसर है ।'


'हमें तो डर लगता है । हम यहीं पड़े रहेंगे ।'


आधी रात से ऊपर जा चुकी थी । दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे कि भागें या न भागें , और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था । जब वह हार गया तो हीरा ने कहा -- तुम जाओ, मुझे यहीं पड़ा रहने दो । शायद कहीं भेंट हो जाय ।


मोती ने आँखो मे आँसू लाकर कहा -- तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो हीरा ? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं । आज तुम विपत्ति में पड़ गये तो मैं तुम्हें छोडकर अलग हो जाऊँ ।


हीरा ने कहा -- बहुत मार पड़ेगी । लोग समझ जाएँगे, यह तुम्हारी शरारत है ।


मोती गर्व से बोला -- जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बन्धन पड़ा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पड़े तो क्या चिन्ता । इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गयी । वे सब तो आशीर्वाद देंगे ।


यह कहते हुए मोती ने दोनो गधों को सींगो से मार मारकर बाड़े के बाहर निकाला और तब बन्धु के पास आकर सो रहा ।


भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची , इसको लिखने की जरुरत नहीं । बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया गया ।

5

एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहाँ बँधे रहे । किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला । हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था । यहीं उनका आधार था । दोनों इतने दुबले हो गये थे कि उठा तक न जाता था ; ठठरियाँ निकल आयीं थीं ।


एक दिन बाड़े के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गये । तब दोनों मित्र निकाले गये और उनकी देख भाल होने लगी । लोग आ आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते । ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीदार होता ?


सहसा एक दढ़ियल आदमी, जिसकी आँखें लाल थीं और मुद्रा अत्यन्त कठोर , आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उँगली गोदकर मुंशीजी से बात करने लगा । उसका चेहरा देखकर अन्तर्ज्ञान से दोनों मित्रों के दिल काँप उठे । वह कौन है और उन्हें क्यो टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई सन्देह न हुआ । दोनो ने एक दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया ।


हीरा ने कहा -- गया के घर से नाहक भागे । अब जान न बचेगी ।


मोती ने अश्रद्धा के भाव से उत्तर दिया -- कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं । उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?


'भगवान् के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है । चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे । एक बार भगवान् ने उस लड़की के रूप में हमें बचाया था क्या अब न बचायेंगे ।'


'यह आदमी छुरी चलायेगा । देख लेना ।'


'तो क्या चिन्ता है ? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी न किसी काम आ जायेगी।'


नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र दढ़ियल के साथ चले । दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी । बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे , पर भय के मारे गिरते-पड़ते भागे जाते थे ; क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डंडा जमा देता था ।


राह में गाय-बैलों का एक रेवड हरे-हरे हार में चरता नजर आया । सभी जानवर प्रसन्न थे , चिकने , चपल । कोई उछलता कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था । कितना सुखी जीवन था इनका; पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पड़े कैसे दुःखी हैं ।


सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है । हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था । वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे । सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गयी । आह ? यह लो ! अपना ही हार आ गया । इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे ; यही कुआँ है ।


मोती ने कहा -- हमारा घर नगीच आ गया ।


हीरा बोला -- भगवान् की दया है ।


'मै तो अब घर भागता हूँ ।'


'यह जाने देगा ?'


'इसे मार गिराता हूँ ।'


'नहीं-नहीं, दौड़कर थान पर चलो। वहाँ से आगे न जायेंगे ।'


दोनो उन्मत होकर बछड़ों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौड़े ।


वह हमारा थान है । दोनों दौड़कर अपने थान पर आये और खड़े हो गये । दढ़ियल भी पीछे पीछे दौड़ा चला आता था ।


झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था । बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे । एक झूरी के हाथ चाट रहा था ।


दढ़ियल ने जाकर बैलों की रस्सी पकड़ ली ।


झूरी ने कहा -- मेरे बैल हैं ।


'तुम्हारे बैल कैसे ? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिये आता हूँ ।'


'मैं समझता हूँ कि चुराये लिये आते हो ! चुपके से चले जाओ । मेरे बैल हैं । मैं बेचूँगा तो बिकेंगे । किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार है ?'


'जाकर थाने मे रपट कर दूँगा ।'


'मेरे बैल हैं। इसका सबूत है कि मेरे द्वार पर खड़े हैं ।'


दढ़ियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड़ ले जाने के लिए बढ़ा । उसी वक्त मोती ने सींग चलाया । दढ़ियल पीछे हटा । मोती ने पीछा किया । दढ़ियल भागा। मोती पीछे दौड़ा । गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका ; पर खड़ा दढ़ियल का रास्ता देख रहा था । दढ़ियल दूर खड़ा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था , पत्थर फेंक रहा था । और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खड़ा था । गाँव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे ।


जब दढ़ियल हारकर चला गया , तो मोती अकड़ता हुआ लौटा ।


हीरा ने कहा -- मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से मे आकर मार न बैठो ।


'अगर वह मुझे पकड़ता , तो बे-मारे न छोड़ता ।'


'अब न आयेगा ।'


'आयेगा तो दूर ही से खबर लूँगा । देखूँ कैसे ले जाता है ? ।'


'जो गोली मरवा दे ?'


'मर जाऊँगा ; पर उसके काम तो न आऊँगा ।'


'हमारी जान को कोई जान ही नहीं समझता ।'


'इसीलिए कि हम इतने सीधे हैं ।'


जरा देर मे नादों में खली , भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे । झूरी खड़ा दोनों को सहला रहा था और बीसों लड़के तमाशा देख रहे थे । सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था ।


उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिये ।

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