आत्मकथ्य
(1)
मधुप गुन-गुनाकर कह जाता कौन कहानी अपनी यह,
मुरझाकर गिर रहीं पत्तियाँ देखो कितनी आज घनी।
इस गंभीर अनंत-नीलिमा में असंख्य जीवन-इतिहास
यह लो, करते ही रहते हैं अपने व्यंग्य-मलिन उपहास
तब भी कहते हो - कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती।
तुम सुनकर सुख पाओगे , देखोगे - यह गागर रीती।
किंतु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करने वाले -
अपने को समझो , मेरा रस ले अपनी भरने वाले।
प्रसंग :- प्रस्तुत पद्यांश छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘आत्मकथ्य’ नामक कविता से उद्धृत है। आलोच्य कविता में कवि ने अपने जीवन के सुख - दुख , पीड़ा , क्षोभ, आकांक्षा और अभाव को बड़े ही मार्मिक ढंग से पाठकों के समक्ष रखा है। आत्मकथा लिखने के सन्दर्भ में अपनी अनिच्छा प्रकट करते हुए कहता है :-- व्याख्या :- आत्मकथा लिखने की बात से ही मन रुपी भौंरा अतीत की ओर उड़ान भर देता है। फिर तो अनायास ही अतीत की यादें , सुख-दुख की गाथाएँ कवि की आँखों के समक्ष चल-चित्र हो उठती हैं। ऐसा जान पड़ता है कि मन रुपी भौंरा कवि के आस-पास गुनगुनाते हुए अतीत की कहानी सुना रहा हो। कवि का जीवन-रुपी वृक्ष तब आशा , आकाँक्षा, खुशियाँ , आनंद और जोश रुपी पत्तियों से हरा-भरा था; परन्तु वर्तमान में परिस्थितियाँ प्रतिकूल हैं । अब तो एक-एक पत्ती मुरझा - मुरझाकर गिर रही है। कवि का जीवन-रुपी वृक्ष मानों पतझड़ का सामना कर रहा है। तात्पर्य यह कि कवि के जीवन में दुख , निराशा , कष्ट और उदासी के अलावा कुछ शेष नहीं है। कवि कहता है कि आज साहित्य रुपी आकाश में न जाने कितने लोगों के जीवन का इतिहास (आत्म-कथा) मौज़ूद है । किसी की आत्म-कथा पढ़कर , उनके जीवन के सुख-दुख की बातें जानकर लोग सहानुभूति नहीं दिखाते बल्कि उसका मज़ाक उड़ाते हैं , फ़ब्तियाँ कसते हैं । कवि कहता है कि ऐ मेरे मित्रो ! इस सचाई को जानकर भी तुम कहते हो कि मैं अपने जीवन के दोषों , कमियों और कमजोरियों को लिखकर सार्वजनिक कर दूँ । मेरा जीवन आनंदरहित और असफल है। मेरा जीवन रुपी घड़ा एकदम खाली और रसहीन है। मेरे दुख की बातें जानकर , मेरे खालीपन को देखकर क्या तुम्हें खुशी होगी? मित्रो !हो सकता है , आत्मकथा लिखने के क्रम में कोई ऐसा सत्य उद्घाटित होजाय , जिसे जानकर तुम स्वयं को ही मेरे दुख और अवसाद का कारण समझने लगो। अत: मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहता।
काव्य-सौन्दर्य :-
* भाव-सौन्दर्य - प्रस्तुत कविता में कवि ने एक ओर जहाँ अपने जीवन के सुख-दुख आदि की पीड़ा और आनंद को बतानेवाले आत्मकथा को लिखने से इनकार किया है , वहीं दूसरी ओर अपने जीवन की असफला के साथ ही मित्रों और सहकर्मियों के ‘मुँह में राम , बगल में छुरी’ वाली प्रवृत्ति का उद्घाटन भी किया है।
* शिल्प-सौन्दर्य -
> खड़ी बोली का प्रयोग हुआ है।
> आत्म-कथात्मक शैली का प्रयोग विलक्षण है।
> कविता में बिम्बात्मकता झलकती है।
> तुक्त छंद का प्रयोग है।
> ‘मधुप’ और ‘गागर’ जैसे प्रतिकात्मक शब्दों का सफल प्रयोग हुआ है।
> भाषा सरल , सहज और भावानुकूल है।
> ‘जीवन-इतिहास’ मे रूपक अलंकार की छटा व्याप्त है।
> कविता शोक और शृंगार रस का पान कराती है।
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(2)
यह विडंबना ! अरी सरलते तेरी हँसी उड़ाऊँ मैं।
भूलें अपनी या प्रवंचना औरों की दिखलाऊँ मैं।
उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ , मधुर चाँदनी रातों की।
अरे खिल-खिलाकर हँसते होने वाली उन बातों की।
प्रसंग :- प्रस्तुत काव्यांश में कवि ने अपने जीवन की कथा को सरल और
सामान्य व्यक्ति के जीवन की कथा के समान बताता है। साथ ही यह भी जता रहा है कि अपनी आत्मकथा सार्वजनिक कर वह उपहास का पत्र नहीं बनना चाहता है। कवि कहता है -
व्याख्या :- यह विडंबना है कि मेरे मित्र मुझसे आत्मकथा लिखने को कह रहे हैं,जिसे पढ़कर लोग प्राय: उपहास करते हैं। ऐ मेरी सीधी-सादी सरल ज़िन्दगी ! जीवन में मुझसे जो गलतियाँ हुईं हैं या लोगों ने जो धोखे दिए हैं, उन सभी को सार्वजनिक कर मैं तुम्हें हँसी का पात्र नहीं बनाना चाहता और न ही धोखेबाज़ मित्रों को उनकी असलियत बताकर उन्हें शर्मिंदा ही करना चाहता हूँ। सच तो यह है कि मैं आत्मकथा लिखने के पक्ष में ही नहीं हूँ क्योंकि इसमें व्यक्तिगत बातें भी बड़ी ईमानदारी से लिखनी पड़ती है। अब भला मैं जीवन के उन नितांत व्यक्तिगत बातों का उल्लेख कैसे कर पाऊँगा? ये मुझसे न हो सकेगा। अत: मैं आत्मकथा नहीं लिखना चाहता ।
काव्य - सौन्दर्य :-
* भाव-सौन्दर्य :-
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि का भाव है कि वह किसी भी सूरत में अपने को हँसी का पात्र नहीं बनाना चाहता और न ही अतीत को याद करके फिर से दुखी होना चाहता है।
*शिल्प-सौन्दर्य :-
> खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग किया गया है।
> ‘अरी सरलते’ कवि के जीवन के लिए प्रयुक्त हुआ है।
> ‘चाँदनी रातें’ सुखद समय की प्रतीक हैं।
> ‘खिल-खिला’ , ‘हँसते होने’ में अनुप्रास अलंकार है।
> अभिव्यक्ति की शैली प्रश्नात्मक है।
शेष भाग क्रमश: अगले पोस्ट में..