यमराज की दिशा
प्रश्न १ - कवि को दक्षिण दिशा पहचानने में कभी मुश्किल क्यों नहीं हुई?
उत्तर - कवि की माँ ने बचपन से ही कवि को दक्षिण दिशा या यमराज की दिशा से बचने अर्थात् बुरे कर्म से बचने की सलाह दी थी। सही और ग़लत की पहचान करवाया था। अच्छे संस्कार दिए थे। प्रेम, मैत्री व ईश्वर - भक्ति का पाठ पढ़ाया था। फलत: कवि को दक्षिण दिशा अर्थात् यमराज की दिशा पहचानने में मुश्किल नहीं हुई।
प्रश्न २ - कवि ने ऐसा क्यों कहा कि दक्षिण को लांघ लेना संभव न था?
उत्तर - दिशाएँ अनन्त होती हैं। दक्षिण दिशा का भी अन्त नहीं है अर्थात् हिंसा , लूट , व्यभिचार , शोषण , उत्पीड़ण और अत्याचार आदि का अन्त नहीं है। इनका कोई एक सार्वभौमिक स्वरूप नहीं होता। इनके अनेकानेक रूप प्रचलित हैं। फलत: इनका विस्तार भी बड़ा है। समूची दुनिया ऐसी कुत्सित भावनाओं से भरी पड़ी है। अत: इनसे पार पाना या इनके पार जाना भी संभव न था और न होगा। कवि ने शायद इसीलिए कहा है कि दक्षिण को लांघ लेना संभव न था।
प्रश्न ३ - कवि के अनुसार आज हर दिशा, दक्षिण दिशा क्यों हो गई है?
उत्तर - दक्षिण दिशा अर्थात् हिंसा , लूट , व्यभिचार , शोषण , उत्पीड़ण और अत्याचार आदि की दिशा। एक ऐसी दिशा जिसमें केवल और केवल यमराज अर्थात् शोषणकर्ता , अत्याचारी , चोर-डाकू और ठग - लुटेरे रहते हों। कवि की नज़र में आज हमारे समाज में चहुँओर शोषण और भ्रष्टाचार का बाज़ार गर्म दिखता है। अत: कवि के अनुसार आज हर दिशा, दक्षिण दिशा हो गई है।
प्रश्न ४ - भाव स्पष्ट कीजिए :-
सभी दिशाओं में यमराज के आलीशान महल हैं
और वे सभी में एक साथ
अपनी दहकती आँखों सहित विराजते हैं
उत्तर - यमराज अर्थात् मौत का फ़रिश्ता या सौदाग़र। आज हमारे समाज में यमराजों की कमी नहीं है। तात्पर्य यह कि हमारे समाज में हिंसक , शोषक और अत्याचारियों की भरमार है। उनकी पाँचों अंगुलियाँ घी में हैं, उनके ठाट निराले हैं। कोई किसी से कम नहीं दिखता। उनकी आँखें दहक रही हैं। तात्पर्य यह कि उन आँखों में क्रोध , नफ़रत , क्रूरता ,कठोरता और हिंसकता भरी हुई है।
प्रश्न ५ - कवि की माँ ईश्वर से प्रेरणा पाकर उसे कुछ मार्ग - निर्देश करती है। आपकी माँ भी समय - समय पर आपको सीख देती होंगी --
(क) - वह आपको क्या सीख देती हैं?
उत्तर - जब से मैंने होश संभाला है तब से आज तक मेरी माँ ने न जाने कितनी बातें बताई और सिखाई होंगी। उन सभी को कलमबद्ध करना संभव नहीं । फिर भी यदि बताना ही पड़े ; तो मैं कहूँगा कि परस्पर मेल-मिलाप , जीवों पर दया , बड़ों का आदर - सम्मान करना , झूठ - बेईमानी और फ़रेब से बचना तथा ईमानदारी से जीवन व्यतीत करने की सीख प्राय: दिया करती हैं।
(ख) - क्या उनकी हर सीख आपको उचित जान पड़ती है? यदि हाँ तो क्यों और यदि नहीं तो क्यों नहीं?
उत्तर - प्राय: माँ की सीख उचित ही हुआ करती है। परन्तु ; उनकी हर सीख मुझे उचित नहीं लगती। क्योंकि वे हर बात को अपने समय की तराजू पर तौला करती हैं। उनका समय हमारे समय से थोड़ा अलग था । लोगों के बोल - व्यवहार अलग थे। आज समय बदल गया है। अत: एकदम वही बात सही नहीं है, जो माँ जानती हैं या सोचा करती हैं। इसलिए मैं आदरपूर्वक सुनता हूँ,परन्तु कुछ बातें , जो मुझे उचित नहीं लगतीं, उन्हें क्षमा माँगते हुए नहीं मानता हूँ।
प्रश्न ६ - कभी - कभी उचित - अनुचित निर्णय के पीछे ईश्वर का भय दिखाना आवश्यक हो जाता है, इसके क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर - मनुष्य का हृदय सदैव आदर्शों द्वारा चालित नहीं होता। समय - समय पर मन की चंचलता और बदलती परिस्थितियाँ मनुष्य के निर्णयों को प्रभावित करती रहती हैं। कभी - कभी मनुष्य अपने निजी स्वार्थों के चक्कर में पड़कर हत्या, लूट, डकैती जैसे कुत्सित एवम् घृणित कार्य करने पर उतारु हो जाता है। ऐसे में ईश्वर का भय दिखाना बेहद ज़रुरी है। मनुष्य क़ानून से नहीं; ईश्वर से डरता है । क्योंकि; क़ानून का संबंध बुद्धि से है जबकि ईश्वर का संबंध सीधे आत्मा या हृदय से है। अत: पाप - पुण्य , ईश्वर , धर्म आदि बातों से डरकर मनुष्य की मनुष्यता जागृत हो जाती है और वह सन्मार्ग पर चलने लगता है।
॥ इति - शुभम् ॥
अगला पाठ क्रमश: अगले पोस्ट में.....
विमलेश दत्त दूबे ‘स्वप्नदर्शी’
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