अंधेर नगरी चौपट राजा
"अंधेर नगरी चौपट राजा । टके में भाजी टके में खाजा ।"
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने इस कहावत को आधार मानकर एक नाटक लिखा था। जिसका
कथानक है - एक बड़ा ही विचित्र राजा था।
उसने अपनी नगरी के लिए अपने से भी विचित्र कानून लागू किया था। राजा कि घोषणा थी
कि उसके राज्य में सब कुछ एक ही भाव में
बेची जाए। उसकी न्याय करने की प्रणाली तो सबसे विचित्र थी । उसके दरबार में यदि
किसी को कोई सजा सुना दी जाती तो हर हाल में राज्य के अधिकारियों को उसका पालन
करना ही पड़ता । राजाज्ञा थी इसलिए वह सजा यदि किसी निरपराध को ही देनी पड़ती तो भी
अधिकारी जरूर देते थे। राजा की ऐसी खतरनाक न्याय व्यवस्था के चलते एक बकरी के मरने
पर एक साधु को फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था क्योंकि फांसी का फंदा जिस व्यक्ति के लिए
बनाया गया था,वह उस व्यक्ति के गले में बड़ा हो रहा था।नियम
के अनुसार किसी-न-किसी को सजा तो देनी
ही थी, अत: एक मोटे-ताज़े साधु की गर्दन
मापी गई ,फंदा उसके गले के बराबर हुआ और उसे फाँसी पर चढ़ाने
की तैयारी की जाने लगी। किन्तु संयोग से घटना ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि कथानक के
अन्त में राजा ही फांसी पर चढ़ गया।
उपरोक्त कथानक यह संदेश देता है कि किसी देश का
शासन यदि किसी अविवेकी व्यक्ति द्वारा संचालित होता है तो वह देश निश्चित रूप से
रसातल (पाताल-लोक) में चला जाता है। उस राज्य में न तो कोई सुखी रह सकता है और न
सुरक्षित। जहाँ सही - गलत को परखने की न कोई कसौटी हो और न प्रजा का दुख - दर्द
सुनने की जरुरत समझी जाती हो वहाँ निश्चित रूप से अराजकता का ही साम्राज्य होगा।
इस उक्ति में मूलत: एक विवेक-शून्य प्रशासन पर करारा व्यंग्य किया गया है।
हम भाग्यशाली हैं कि हर पाँच साल में हमें अपनी गलती सुधारने का मौका मिलता
है। यदि लगता है कि गलती हुई है तो किसने रोका है सुधारने से....चुनाव आया है।
॥ इति - शुभम् ॥
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